भारतीय मुसलमान: डर के साये में?

http://images.indianexpress.com/2016/06/vp-ansari-759.jpg

पूर्व उपराष्ट्रपति श्री हामिद अंसारी के एक हालिया बयान से जिस प्रकार मीडिया ट्रायल हुआ और उसको राजनितिक मोड़ दिया गया वो गिरते वैचारिक मानसिकता और मुद्दों को संवेदनशील बनाकर राजनीति करने के नए तरीके का परिणाम है। हामिद अंसारी के कथन को समझने के लिए सिर्फ बीजेपी के इस तीन साल का ही विश्लेषण नहीं होना चाहिए वरना ये राजनितिक विश्लेषण होकर रह जाएगा। इसको समझने के लिए हमें कम से कम एक सदी और उसके बाद के मुसलमानो के हालत को नज़र में रखना होगा।

स्वतंत्रता संग्राम में हिंदुस्तानी मुसलमानो की भागीदारी और बलिदान को किसी के सनद की आवश्यकता नहीं। मुसलमानो ने अपनी आबादी और हिस्सेदारी से अधिक बढ़-चढ़ कर इस लड़ाई को लड़ा और जीता। लेकिन पाकिस्तान के बंटवारे ने जिस प्रकार भारतीय मुसलमानो को मानसिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनितिक रूप से तोड़ा उससे हम दशकों निकल नहीं पाये। शिक्षित, आर्थिक रूप से संपन्न, सरकारी नौकरियों के बड़े ओहदेदार भारत छोड़कर एक नए देश में अपना सुख तलाशने जा चुके थे। बचा था दबा, कुचला , पिछड़ा और अशिक्षित मुसलमान जिसको अपने पुरखों की विरासत को छोड़ना किसी हाल में गवारा नहीं था।

पकिस्तान बनने की आत्मग्लानि, जातीय राजनीति के बढ़ते ज़ोर में बिना नेतृत्व के खौफ के माहौल से मुसलमानो को उबरने में एक लंबा समय लगा। जब उबरने लगे तो पाकिस्तान की भाँती ‘धर्मांधता’ की राजनीति भारत में भी शुरू हो चुकी थी। हमें इस बात को महसूस करना होगा की पाकिस्तान में बचे अल्पसंख्यक भी इसी पीड़ा से गुज़रे होंगे। फ़र्क़ इतना ज़रूर है की भारतीय मुसलमानो के अधिकार की बड़ी बड़ी लड़ाई यहाँ के बहुसंख्यक समाज ने लड़ा और आज भी वो लड़ते हैं।

मुझे हामिद अंसारी साहेब की बातों को समर्थन करने में कोई हिचक नहीं। आज भारतीय मुसलमान डर में है। वो पाकिस्तान बंटवारे के बाद भी डर में थे और आज भी डर के माहौल में जी रहे।

इन सब चीजों में जो एक चीज़ छूटी वो है मुसलमानो की समाज निर्माण में हिस्सेदारी की कमी। उसके कई कारण हैं जिसपर एक लंबी चर्चा की आवश्यकता है। 70 साल का अंतराल किसी समाज को सम्भलने और अपने हालात को सुधारने के लिए कम नहीं होता। आप सिर्फ दूसरों पर इलज़ाम लगाकर अपनी ज़िम्मेदारी से नहीं बच सकते। मुसलमानो में शिक्षा के प्रति रुझान बढ़ा है। ज़रुरत है अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारियों के प्रति सोचने, इसपर निरंतर चर्चा कर एक दिशा देने की। मैं आओ सबको आमंत्रित करता हूँ इसपर एक बहस शुरू हो और मुख्यधारा से जुड़कर काम आगे बढे।

 

—तनवीर आलम समाजवादी विचारक, समाजसेवी और अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय पूर्व छात्र संगठन महाराष्ट्र, मुम्बई के अध्यक्ष हैं।

One thought on “भारतीय मुसलमान: डर के साये में?”

  1. बहस तो जुरुरत हे इस मौजू की
    में इस लेख से सहमत हूँ !
    हमे आगे आकर इस मसले पर विचार करना ही चाहिये आखिर कब तक हम यूही डर डर कर जीते रहेंगे !
    वकत आ गया हे इसका हल निकालने का

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *