Minus the politics, triple talaq verdict is a welcome move

An Muslim wedding in IndiaTHE HISTORIC judgement by the Supreme Court striking down the ridiculous practice followed in some sections of the Muslim community is commendable. About time it was done away with. It is noteworthy, however, that the same has already been banned years back by several Islamic nations, including our favourite neighbour.

Triple talaq or should I say the instant triple talaq had of late become everyone’s favourite whipping boy (comes second only to the four wives conundrum) and though as a Muslim woman I do find it an extremely regressive and outdated practice, I know it has more to do with the patriarchy deeply embedded in our society than anything else! When I say our society I do not mean Muslim, I mean Indian. So while I’m glad it is out of the way, can we be as bothered about ‘all’ women across religions, castes, and  economic demographics? Because, frankly, I think the status of women is elevated only by a single factor – economic independence. No religion, no law, no sharia, no nothing!

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भारतीय मुसलमान: डर के साये में?

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पूर्व उपराष्ट्रपति श्री हामिद अंसारी के एक हालिया बयान से जिस प्रकार मीडिया ट्रायल हुआ और उसको राजनितिक मोड़ दिया गया वो गिरते वैचारिक मानसिकता और मुद्दों को संवेदनशील बनाकर राजनीति करने के नए तरीके का परिणाम है। हामिद अंसारी के कथन को समझने के लिए सिर्फ बीजेपी के इस तीन साल का ही विश्लेषण नहीं होना चाहिए वरना ये राजनितिक विश्लेषण होकर रह जाएगा। इसको समझने के लिए हमें कम से कम एक सदी और उसके बाद के मुसलमानो के हालत को नज़र में रखना होगा।

स्वतंत्रता संग्राम में हिंदुस्तानी मुसलमानो की भागीदारी और बलिदान को किसी के सनद की आवश्यकता नहीं। मुसलमानो ने अपनी आबादी और हिस्सेदारी से अधिक बढ़-चढ़ कर इस लड़ाई को लड़ा और जीता। लेकिन पाकिस्तान के बंटवारे ने जिस प्रकार भारतीय मुसलमानो को मानसिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनितिक रूप से तोड़ा उससे हम दशकों निकल नहीं पाये। शिक्षित, आर्थिक रूप से संपन्न, सरकारी नौकरियों के बड़े ओहदेदार भारत छोड़कर एक नए देश में अपना सुख तलाशने जा चुके थे। बचा था दबा, कुचला , पिछड़ा और अशिक्षित मुसलमान जिसको अपने पुरखों की विरासत को छोड़ना किसी हाल में गवारा नहीं था।

पकिस्तान बनने की आत्मग्लानि, जातीय राजनीति के बढ़ते ज़ोर में बिना नेतृत्व के खौफ के माहौल से मुसलमानो को उबरने में एक लंबा समय लगा। जब उबरने लगे तो पाकिस्तान की भाँती ‘धर्मांधता’ की राजनीति भारत में भी शुरू हो चुकी थी। हमें इस बात को महसूस करना होगा की पाकिस्तान में बचे अल्पसंख्यक भी इसी पीड़ा से गुज़रे होंगे। फ़र्क़ इतना ज़रूर है की भारतीय मुसलमानो के अधिकार की बड़ी बड़ी लड़ाई यहाँ के बहुसंख्यक समाज ने लड़ा और आज भी वो लड़ते हैं।

मुझे हामिद अंसारी साहेब की बातों को समर्थन करने में कोई हिचक नहीं। आज भारतीय मुसलमान डर में है। वो पाकिस्तान बंटवारे के बाद भी डर में थे और आज भी डर के माहौल में जी रहे।

इन सब चीजों में जो एक चीज़ छूटी वो है मुसलमानो की समाज निर्माण में हिस्सेदारी की कमी। उसके कई कारण हैं जिसपर एक लंबी चर्चा की आवश्यकता है। 70 साल का अंतराल किसी समाज को सम्भलने और अपने हालात को सुधारने के लिए कम नहीं होता। आप सिर्फ दूसरों पर इलज़ाम लगाकर अपनी ज़िम्मेदारी से नहीं बच सकते। मुसलमानो में शिक्षा के प्रति रुझान बढ़ा है। ज़रुरत है अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारियों के प्रति सोचने, इसपर निरंतर चर्चा कर एक दिशा देने की। मैं आओ सबको आमंत्रित करता हूँ इसपर एक बहस शुरू हो और मुख्यधारा से जुड़कर काम आगे बढे।

 

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