लगभग एक महीने और 40 दिन बाद भी सीतामढ़ी में मारे गए ज़ैनुल अंसारी के हत्यारों की गिरफ्तारी न होना अपने आप में समाजसेवियों से लेकर प्रशासन और विशेषकर राजनीतिक दलों के नेताओं के सारे दावों को झूठा साबित कर देता है। वैसे भी सीतामढ़ी दंगे पर हफ्तों हफ्ते तक राजनीतिक कार्यकर्ताओं, दलों के पदाधिकारियों और स्वघोषित क़ौम के नेताओं का कोई अता पता नही था। यहां तक कि उर्दू अखबारों ने खबर तक नहीं लगाई। खैर, मुसलमानों की सबसे हितैषी कही जाने वाली पार्टी के मुखिया और नेता प्रतिपक्ष का पहला ट्वीट, मैं फिर दोहरा रहा हूँ ट्वीट 25 दिन बाद याद 14 नवंबर को आता है। जो नेता अपने पिता के धुर विरोधी पूर्व भाजपा नेता और पूर्व प्रधानंत्री के प्राकृतिक मौत की खबर पर ट्वीट करने में मिनट नही लगाता और लिखता है कि ‘वो हमलोगों के पिता समान थे’ वही नेता एक 80 साल के वृद्ध की हत्या पर 25 दिन लगाता है। और उनकी पार्टी के तथाकथित बुद्धिजीवी सांसद जो लेक्चरर/प्रोफेसर हैं उन्हें भी समझ नही आता कि इस मुद्दे पर बोलना चाहिए।
27 नवंबर को बिहार विधानसभा में विपक्ष ने सीतामढ़ी के दंगे पर सवाल किये, अच्छा किया। लेफ्ट के तीनों नेताओं ने भी सवाल उठाए। तेजस्वी यादव का सवाल उठाना उतना महत्व नही रखता जितना सीतामढ़ी के कुछ लोगों द्वारा तेजस्वी के सवाल उठाने को मसीहाई अंदाज़ में पेश करना। उसपर बात करना महत्वपूर्ण है।
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